अक्षय तृतीया की कहानी और महत्व (Akshay Tritiya Ki Kahani)
अक्षय तृतीया की कहानी (Akshay Tritiya Ki Kahani) जानने से पहले हम इस तिथि के महत्व के बारे में जानते हैं।
संस्कृत के शब्द अक्षय का अर्थ होता है “जिसका कभी क्षय ना हो” और इसीलिए ऐसा कहा जाता है, कि अक्षय तृतीया वह तिथि है जिसमें सौभाग्य और शुभ फल का कभी क्षय नहीं होता। वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को अक्षय तृतीया या आखा तीज कहते हैं। धर्म ग्रन्थों के अनुसार इस दिन जो भी शुभ कार्य किये जाते हैं, वो अक्षय फल दायी होते हैं। इसे अक्षय तृतीया इसलिए कहा जाता है।
हिन्दू धर्म के अनुसार अक्षय तृतीया कब मनाते हैं ?
प्रति वर्ष वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को अक्षय तृतीया मनाते हैं। वैसे तो हर महीने की शुक्ल पक्ष की तृतीया शुभ होती है पर वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि का विशेष महत्व है। यह तृतीया मध्याह्न से पहले शुरू होकर प्रदोष काल तक रहे तो बहुत ही श्रेष्ठ मानी जाती है। ऐसा माना जाता है कि अक्षय तृतीया पर आप जो खरीदारी और निवेश करेंगे, उसका मूल्य बढ़ेगा और वह हमेशा आपके साथ रहेगा।
इस दिन कोई भी शुभ काम किया जाए वो फलदायी ही होता है। इस दिन विवाह, गृह–प्रवेश, वस्त्र–आभूषणों की खरीददारी या घर, भूखण्ड, वाहन आदि की खरीददारी से सम्बन्धित कार्य किए जाते हैं। बहुत से लोग इस दिन नए व्यवसायों या परियोजनाओं की शुरुआत करते हैं। इसके अलावा इस दिन को सोने और चांदी की खरीदारी के लिए बेहद अनुकूल माना जाता है। इस दिन लोग देवी लक्ष्मी के सम्मान में कीमती धातु, मशीनरी और उपकरण खरीदते हैं।
अक्षय तृतीया की कहानी (Akshay Tritiya Ki Kahani)
प्राचीन काल में एक वैश्य था, जिसका नाम धर्मदास था। अपने बड़े परिवार के साथ, धर्मदास एक छोटे से गाँव में रहता था। उसके परिवार में कई सदस्य थे। वह हमेशा अपने परिवार के भरण–पोषण में लगा रहता था। आर्थिक स्थिति कमजोर होने के कारण सदैव चिंतित रहता था। जीवन मे कष्ट के बाद भी, धर्मदास बहुत धार्मिक प्रवृत्ति का व्यक्ति था। उसका सदाचार तथा देवताओं एवं ब्राह्मणों के प्रति उसकी श्रद्धा अत्याधिक प्रसिद्ध थी। वह अपने पूर्वजों से अक्षय तृतीया व्रत के महात्म्य को सुनता आ रहा था।
अक्षय तृतीया के दिन धर्मदास की दिनचर्या
उसका मानना था कि पूर्वजों ने इस दिन को क्षमता अनुसार जो पूजा–पाठ–दान किया, उसी के कारण उसका इतना बड़ा परिवार कभी भूखा नही रहता। उसे इस तिथि के प्रति बहुत श्रद्धा थी। वह अक्षय तृतीया के दिन, सूर्योदय से पहले उठ कर गंगा जी में स्नान करता था। फिर पूर्ण विधि से लक्ष्मी नारायण की पूजा करता। और अपने सामर्थ्यानुसार जल से भरे घड़े, पंखे, जौ, सत्तू, चावल, नमक, गेंहू, गुड़, घी, दही, सोना तथा वस्त्र आदि वस्तुएँ भगवान लक्ष्मी नारायण के चरणों में चढ़ाता था। इनमे से एक हिस्सा प्रसाद स्वरूप अपने परिवार के लिए रखता और एक हिस्सा ब्राह्मणों को दान कर देता। गौमाता को भोजन और गुड़ खिलाता । पितरों के नाम से दान भी करता था।
हर वर्ष यह दान देखकर धर्मदास के परिवार वालों को लगता कि धर्मदास कितना धन इस कार्य मे व्यर्थ करता है। उसकी पत्नी सहित उसके घरवाले उसे रोकने की कोशिश भी करते। और, कहते इतना दान करने की क्या आवश्यकता है? फिर भी धर्मदास अपने दान और पुण्य कर्म से विचलित नहीं हुआ। ब्राह्मणों को सदैव दान देता, और जब उसे ब्राह्मण नही मिलते तब धार्मिक पुस्तकों के अनुसार वो अनाज, गुड़ और भोज्य पदार्थ गौमाता को खिला देता। धार्मिक पुस्तकों के अनुसार गौमाता को ब्राह्मण माना गया है।
वृद्ध धर्मदास का कर्म और धर्म
जब वह बूढा हो गया तो उसे अनेक रोगों ने घेर लिया, तब भी उसने उपवास करके धर्म–कर्म और दान पुण्य करना नहीं छोड़ा। अपने कर्मों के पुण्य प्रताप से वैश्य धर्मदास अगले जन्म में कुशावती के राजा हुए। अक्षय तृतीया के दिन किए गए दान–पुण्य व पूजन का फल केवल उनके आर्थिक जीवन मे ही नही अपितु उनके चरित्र पर भी पड़ा। वह अपने अगले जन्म में बहुत धनी एवं प्रतापी राजा तो बने ही। उसके साथ साथ शीलवान, महादानी एवं धर्मवान भी बने। कहते हैं कि उनकी तपस्या, पूजा पाठ ओर दान से त्रिदेव इतने प्रसन्न थे कि त्रिदेव भी उनका दान के उत्सव में ब्राह्मण का वेष धारण करके उसके महायज्ञ में शामिल होते थे।
धर्मदास का अगला जन्म
अपनी श्रद्धा और भक्ति का उन्हें कभी घमंड नहीं हुआ। वह सदैव दान को ही परम मानते। अपने प्रजा के प्रति भी सदैव दान और कल्याण की भावना रखते थे। उनके लिए उनका राज धर्म, प्रजापालक धर्म पहले आता था। महान प्रतापी कुशराज कभी धर्म मार्ग से विचलित नहीं हुए। माना जाता है कि यही राजा आगे के जन्मों में भारत के प्रसिद्ध सम्राट चंद्रगुप्त के रूप में पैदा हुए थे। जैसे भगवान ने धर्मदास पर अपनी कृपा की वैसे ही जो भी व्यक्ति इस अक्षय तृतीया की कथा का महत्त्व सुनता है और विधि विधान से पूजा एवं दान आदि करता है, उसे अक्षय पुण्य एवं यश की प्राप्ति होती है। मनुष्य को इस तिथि को हर प्रकार के दान यथासंभव करने चाहिए। देवता, पितृ, ब्राह्मण, गौ सब के नाम से दान करना चाहिए। और दान निकलने के उपरांत प्रसाद ग्रहण करना चाहिए।
इस दिन का महत्व
- वैशाख तृतीया को ही भगवान परशुराम ने विष्णु के छठे अवतार के रूप में जन्म लिया था। यह दिन परशुराम जयंती के रूप में मनाया जाता है।
- वेद व्यास जी ने गणेशजी के साथ महाभारत लिखने की शुरुआत इसी दिन की थी।
- इसी दिन भगवान कृष्ण ने अपने मित्र सुदामा को महल और धन धान्य से परिपूर्ण करके दोस्ती का फर्ज निभाया था।
- वैशाख तृतीया को महाभारत का युद्ध समाप्त हुआ था।
- इस दिन से सतयुग और त्रेतायुग का आरंभ माना जाता है।
- इस दिन गंगा नदी स्वर्ग से उतर कर धरती पर आई थी। इस तिथि गंगा स्नान का विशेष महत्त्व माना जाता है।
- रसोई और भोजन की देवी अन्नपूर्णा के जन्मदिवस के तौर पर भी इस दिन को मनाते हैं।
- ज्योतिष के अनुसार अक्षय तृतीया के दिन सूर्य और चन्द्रमा अपनी सम्पूर्ण उच्च क्षमता के साथ बराबर चमक बिखेरते हैं।
- उड़ीसा के प्रसिद्ध जगन्नाथ मंदिर की रथ यात्रा के लिए रथ बनाने की शुरुआत इसी दिन की जाती है।
- वृन्दावन में केवल अक्षय तृतीया के दिन ही बाँके बिहारी जी के चरण कमल के दर्शन होते हैं।
- चार धाम की यात्रा के भगवान बद्रीनाथ मंदिर के पट अक्षय तृतीया के दिन से खोले जाते है।
इस दिन सनातन धर्म में इतनी सारी धार्मिक घटनाएं हुई इसलिए अक्षय तृतीया का अत्याधिक महत्व है।