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ईमानदार भंवरलाल (Imandaar Bhanwarlal)

मेहनती एवं ईमानदार भंवरलाल (Imandaar Bhanwarlal)

भंवर लाल (Imandaar Bhanwarlal) एक बड़ा ही मेहनती एवं ईमानदार लकड़हारा था। वो प्रतिदिन नहा धो कर, पूजा पाठ किया करता। फिर, घर मे नाश्ता खा कर लकड़ियां काटने जंगल निकल पड़ता। उसकी धर्मपत्नी सुधा उसके साथ ही उसका कलेवा (दोपहर का भोजन) बांध देती। दोपहर तक लकड़ियां काटने के बाद, भंवर लाल कलेवा करता था। फिर, काटी हुई लकड़ियों की गठरी बांध, राजधानी में उन्हें बेचने जाता। लगभग रोज ही उसकी से लडकिया बिक जाती थी। वह घर आते समय घरेलू सामान भी बाजार से ले आता था। उसकी धर्मपत्नी भी बड़ी मेहनती थी। वह घर के काम के साथ साथ अपने छोटे से जमीन के टुकड़े पर सब्जियां उगाती थी। वह भी प्रतिदिन दोपहर के समय राजधानी में सब्जियां बेचने जाती थी। दोनो मेहनत कर अपने घर को सुचारू रूप से चलाने का हर संभव प्रयास करते थे।

आर्थिक तंगी में भंवरलाल

भंवरलाल के 6 बच्चे थे। घर मे बूढ़े माँ बाप भी थे। 10 लोगों के परिवार का भरण पोषण इतना आसान भी नही था। सदैव कुछ न कुछ कमी ही रहती थी। इतनी मेहनत के बाद भी भंवर लाल के पास कोई जमा पूंजी नही थी। 6 बच्चों में 2 बड़ी बेटियां, फिर 2 बेटे और फिर 2 छोटी बेटियां थीं। दो बड़ी बेटियों की शादी के लिए भी धन की आवश्यकता थी। बेटों की अच्छी शिक्षा दीक्षा के लिए भी धन की आवश्यकता थी। दोनो छोटी बेटीयाँ अभी बहुत छोटी थीं। परंतु, उनकी भी शिक्षा एवं विवाह के लिए धन जमा करना था।

ईमानदार भंवरलाल (Imandaar Bhanwarlal) को मिला हीरे जवाहरात से भरा थैला

एक दिन की बात है, भंवरलाल लकड़ी काटने जंगल पहुंचा। लकड़ी काट ही रहा था कि, यह क्या? पेड़ के ऊपर से एक सुनहरे रंग का छोटा थैला नीचे गिर। जब भंवरलाल ने उसे खोल कर देखा तो उसमें हीरे जवाहरात भरे हुए थे। भंवरलाल उन्हें देखकर अचंभित रह गया। उसने सोचा, “क्या ईश्वर ने यह मेरी ईमानदारी, मेरे पूजा-पाठ का फल दिया?” और खुशी-खुशी उसने उस थैली को अपने पास रख लिया। जब लकड़ियां काटने का कार्य पूरा हुआ, उसके बाद भंवरलाल ने कलेवा किया। फिर लकड़ियों को बांधकर उन्हें बेचने नगर ले गया। परंतु, हर समय उसका ध्यान केवल उस थैले पर ही था। वह थैले को लेकर अलग अलग बातें सोचने लगता। कभी उसे लगता,क्या यह किसी और के होंगे? जिन्हें मुझे दे देना चाहिए? अगर किसी और के हैं तो मुझे क्यों मिले हैं?”

अचंभित सुधा 

कभी सोचता, “क्या पता मुझे ही मिले हों। जब मुझे मिलें हैं तो मेरे हुए। क्या पता ईश्वर ने मुझे मेरी भक्ति का फल दिया है।” उसके दिमाग में हर क्षण अलग-अलग ख्याल आ रहे थे। लकड़ियां बेच कर, वह अपने घर चला गया। रात को खाना खाने के बाद जब वह सोने गया। तब उसने अपनी पत्नी से यह बात बताई। उसकी पत्नी भी उस थैली को देखकर अचंभित रह गई। कहने लगी, “इतने सारे हीरे जवाहरात कभी देखे ही नहीं थे। हां! राजमहल में रानियों और राजकुमारियों को जरूर पहने देखा है। परन्तु, यह कभी अपने हाथ में लेकर देख पाऊंगी, ऐसा तो कभी स्वप्न में भी नहीं सोचा था। यदि इन्हें कोई लेने आ गया तब क्या होगा? ऐसा तो नही की कोई हमे चोर समझे? यदि राज परिवार का हुआ तो हमें दंड भी मिल सकता है।”

इसपे हमारा अधिकार नहीं! (Imandaar Bhanwarlal)

तब भंवरलाल कहता है, “प्रिये! मुझे तो केवल यह सोच परेशान कर रही है कि क्या यह मेरी भक्ति का फल है? या किसी और की संपत्ति मैं घर ले आया हूँ? यदि यह किसी और की है तो मुझे नही चाहिए। परंतु, इसके मालिक को मैं कहाँ ढूंढूं? हालांकि इस धन से हमारे सारे दुख दूर हो सकते हैं। हम घर बना सकते हैं। बेटियों की शादी कर सकते हैं। बेटों को अच्छी शिक्षा दीक्षा देकर उन्हें लायक बना सकते हैं। बगल वाली जमीन खरीद कर अच्छी शाक भाजी ऊगा सकते हैं। फिर जंगल जाने की आवश्यकता भी ना होगी। यहीं दोनो पति पत्नी फल और सब्जियां उगा कर अच्छे से जीवन यापन कर सकते हैं। परंतु यह भी सत्य है कि यह धन हमारा नही है। इसपर हमारा अधिकार नही है।”

हीरे जवाहरात वाला थैला भंवरलाल (Imandaar Bhanwarlal) का हुआ

सुधा कहती है, “हमे इसे राजा जी को सौंप देना चाहिए। हो न हो किसी राजघराने का ही हो या किसी ने इन्हें राजघराने से चुराया हो।” दोनो पति पत्नी इसपर सहमत होगये। सुबह तैयार होकर भंवर लाल राजसभा पहुँच गया। राजा के समक्ष बोलने की उसकी बारी आई। भंवर लाल ने थैली राजा को सुपुर्द करते हुए पूरी बात बता दी। राजा भंवर लाल की ईमानदारी से प्रसन्न हुआ। राजा ने कहा, “भंवर लाल तुमने ईमानदारी की एक नई मिसाल कायम की है। इसके फल स्वरूप ईनाम में यह थैला तुम्हारा हुआ।” राजा की बात सुन कर भंवर लाल की आंखों से आंसू आगए। वह सोचने लगा भगवान की भी क्या लीला है। ना मेरी ईमानदारी जाने दी ना यह थैला जाने दिया। उस थैले ने भंवर लाल और उसके परिवार के जीवन को संवार दिया।

कर्म का फल (Karm Ka Fal) पढ़ें।

 

 

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