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क्यों मनाई जाती है अक्षय तृतीया (Akshay Tritiya)?
वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को अक्षय तृतीया (Akshay Tritiya) मनाई जाती है। इसे आखातीज (Akha Teej या Akahay Tritiya) के नाम से भी जाना जाता है। अक्षय तृतीया पर माता लक्ष्मी, भगवान विष्णु, महादेव और कुबेर जी की पूजा की जाती है। इसी शुभ दिन भगवान विष्णु के छठे अवतार भगवान परशुराम प्रकट हुए थे। इसी दिन भगवान विष्णु के नर नारायण एवं हयग्रीवा स्वरूप का भी अवतरण हुआ था। अक्षय तृतीया के दिन बद्रीनाथ के कपाट खुलते हैं। प्रतिवर्ष केवल अक्षय तृतीया के दिन ही बांके बिहारी मंदिर, वृंदावन में कान्हा के चरणों के दर्शन होते हैं। मान्यता है कि आज के दिन शुरू किए गए कार्य एवं आज के दिन किए गए दान का कभी छय नहीं होता यानी आपको सदैव उसका फल मिलता रहता है। आईए जानते हैं अक्षय तृतीया से जुड़ी पौराणिक कहानियां।
कैसे कुबेर बने धनपति?
कुबेर यक्ष हैं, उसके बाद भी उन्हें देव तुल्य स्थान प्राप्त है। कुबेर को धन का देवता माना जाता है। प्राचीन युग में लंका रावण की नहीं बल्कि उसके बड़े भाई कुबेर की हुआ करती थी। कुबेर रावण के सौतेले भाई थे। रावण के जन्म से पहले से ही कुबेर लंका के राजा थे। परंतु, योग्य होने के उपरांत रावण ने बलपूर्वक कुबेर से उनकी सोने की लंका छीन ली थी।
कुबेर जी भगवान शिव के अनन्य भक्त हैं। अपनी इस व्यथा को लेकर कुबेर भगवान शिव के पास पहुंचे और उनसे अपनी व्यथा बताई। तब भगवान शिव ने कुबेर राज को कहा, “हे कुबेर! यदि समुद्र से एक बूंद जल किसी ने ले लिया तो उससे समुद्र तो कभी खाली नहीं हो सकता। इस प्रकार यदि रावण ने तुझसे तेरी सोने की लंका छीन ली तो उससे वह रावण धन का देवता तो नहीं बन सकता। मैं पहले ही तुम्हे धनराज होने का वरदान दिया हुआ है, वह तुमसे कोई नही ले सकता। तुम धन के देवता हो, आज से तुम अलकापुरी में राज्य करो। स्वर्ग के वित्त को संभालने की जिम्मेदारी भी अब तुम्हारी है।” जिस तरह भोलेनाथ ने कुबेर के धन को अक्षय सिद्ध कर दिया, इसी प्रकार आज के दिन प्राप्त किया गया धन, किया गया दान एवं शुरू किया गया कार्य अक्षय होता है।
कौन थे राजा चंद्रगुप्त पिछले जन्म में?
प्राचीन काल में एक बूढ़ा बीमार वैश्य था। जिसका नाम धर्मदास था। धर्मदास ने एक बार अक्षय तृतीया का महात्म्य सुना और निश्चय कर लिया कि अब की बार अक्षय तृतीया के दिन वह भी नियम पूर्वक आचरण करेगा। अक्षय तृतीया के दिन उसने ब्रह्म मुहूर्त में गंगा नदी में स्नान किया। फिर भगवान विष्णु एवं माता लक्ष्मी को आटे से बने भोग का प्रसाद लगाया। क्षमता अनुसार नियमबद्ध हो कर पूजा अर्चना की। बीमार एवं वृद्ध होने के बाद भी उसने व्रत रखा तथा अपनी क्षमता अनुसार दान पुण्य करे।
अगले जन्म में धर्मदास, कुशावती के राजा बने। कुशावती राज सदैव धर्म पर चलने वाले, अहंकार शून्य, वैभवशाली एवं दानवीर राजा थे। कहते हैं, उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर त्रिदेव भी उनकी सभा में ब्राह्मण वेशधारण कर प्रेम पूर्ण दान प्राप्त करने आते थे। ऐसा भगवान अपने प्रिय भक्तों के लिए ही करते हैं। आगे जन्म में यही कुशावती राज, कलयुग के राजा चंद्रगुप्त हुए।