एक बार की बात है, एक गांव के पास जंगल के तरफ डाकुओं का एक झुण्ड रहता था। उन डाकुओं का सरदार साधू के भेष में रहता था। वो लोग व्यापारियों, अमीरों और राहगीरों को लूटा करते थे और उनसे लुटा हुआ धन गरीबों में बाँटते थे। अपने आस पास के गरीबों का ध्यान रखते थे। उन्हें लगता था की राज्य में इन गरीबों को पूछने वाला कोई नहीं है। उन्हे राज्य की ओर से गरीबों के प्रति यह व्यव्हार किसी विश्वासघात से कम नहीं प्रतीत होता था। और उनकी बात एक हद तक सही भी थी। जिस जंगल में वो लोग रहते थे वहां तक राज्य सुविधाएँ नहीं पहुँच पाती थीं। परन्तु इस वजह से उसके मन में व्यापारियों और अमीर लोगों के प्रति नकारात्मक भाव भर गए थे।
लौटते व्यापारी
एक दिन कुछ व्यापारियों का झुंड राज्य की राजधानी में लगे व्यवसायिक मेले से लौट रहा था। उनके पास व्यवसाय से कमाया हुआ बहुत सारा धन था। परन्तु उन्हें उस रास्ते और जंगल के बारे में पता नहीं था। वो चलते चलते वहां पहुँच गए जहाँ वो डाकू लोग रहते थे। सारे डाकुओं ने धीरे धीरे उन्हें चारो तरफ से घेर लिया और देखते ही देखते सारे व्यापारी डाकुओं के घेरे के अंदर आ गये। और फिर वो डाकू उन सभी व्यापारियों को डराने धमकाने लगे। तभी उन डाकूओं की नज़रों से बचाकर एक व्यापारी अपने धन का थैला लेकर धीरे धीरे भागा। और भाग कर वो पास के एक तंबू में घूस गया। और जोर जोर से साँसे ले रहा था। भागते भागते थक गया था और डरा हुआ भी था।
तम्बू में साधू
तभी उसने देखा की उस तम्बू के अंदर एक साधू माला जप रहा है। उसके हाफने की आवाज़ सुन कर साधु जप से उठा और उस व्यापारी से गुस्से में पूछा की उसने उसके जप में विघ्न क्यों डाला? और आखिर उसने उसके तम्बू में आने की हिम्मत कैसे की? इससे पहले की साधु कुछ और बोल पाता व्यापारी ने धन से भरा वह थैला उस साधू को संभालने के लिए दे दिया। और कहा पुरे साल की मेहनत के बाद राजधानी के मेले में जो धन प्राप्त हुआ है वो आपको दे रहा हूँ। यह मेरे परिवार की रोटी के लिए है। हमे डाकुओं ने घेर लिया है। यदि हम मारे गए तो मेरे परिवार तक ये धन पहुंचा दीजियेगा अन्यथा वो लोग भूख से मर जायेंगे। हम सुंदरनगर के निधि सरोवर के पास रहने वाले व्यापारी हैं। अब मैं जाता हूँ, यदि डाकुओं ने मुझे आपके पास देखा तो आपको भी मार देंगे। यह कह कर भागने लगा साधू के मानो होठ सिल गए हों, वह कुछ कह न सका।
साधू का वचन
जब व्यापारी के जाने का एहसास हुआ तब वह यही कह पाया की “तुम निश्चिन्त हो जाओ। मैं तुम्हारे धन की रक्षा करूँगा”। व्यापारी के इस विश्वास ने डाकुओं के सरदार को अंदर तक झकझोर दिया था। वह यह सोचने पर मजबूर हो गया की क्या राज्य की सुविधाएँ उस जंगल में न पहुँच पाने की वजह से वह जिन लोगों को लुटता था वो गलत था? क्यूंकि वो भी तो मेहनत से धन कमाया करते थे। और उन्हें राज्य से ये धन प्राप्त तो नहीं होता था। इन सब बातों ने उन डाकुओं के सरदार को परेशान कर दिया। उसे ऐसा लगता था की वो सही काम करता है जब की आज उसे अपने किये पर पछतावा हो रहा था।
व्यापारियों से लूट
तभी उसे व्यापारियों के चीखने की आवाज आयी। वो भागता हुआ बहार आया और उसने देखा की व्यापारियों को बंदी बना कर उन्हें उसके चेले डाकू मार रहे हैं। तभी वो तम्बू के अंदर से छुप कर बाकि डाकुओं को रुकने का आदेश दिया। उनमे से एक डाकू ने हिम्मत कर तम्बू में आकर आदेश के बारे में पूछा तब सरदार डाकू ने कहा की “इन सभी व्यपारियों को जाने दो और इनका धन वापिस कर दो”। डाकू इस बात पर सहमत नहीं थे। उनके जीने खाने का यह एक श्रोत था। उस डाकू ने सरदार से कहा की “यदि यह गलत है तो हम आगे से मेहनत कर खाएंगे परन्तु अभी क्या खाएंगे और असहाय और वंचित लोगों को क्या खिलाएंगे?” फिर सरदार ने कहा की ” यदि ऐसी बात है तो लूट का आधा माल व्यापारियों को वापिस कर दो और उन्हें जाने दो”। इस पर सबकी सहमति बनी और व्यापारियों को आधा धन लौटा कर जाने की अनुमति दे दी गयी।
व्यापारी का तम्बू में लौटना
फिर हिम्मत कर व्यापारी अपना थैला लेने वापस तंबू में आया। और यह क्या? अपनी आँखों से सच्चाई देख कर वह स्तब्ध था। जिस साधु को उसने अपना थैला दिया था वह साधू तो डाकूओं की टोली का सरदार था। लूट के धन को वह दूसरे डाकूओं को बाँट रहा था। यह सब देख व्यापारी वहाँ से निराश होकर वापस जाने लगा। वह मुड़ मुड़ कर तम्बू की तरफ देख रहा था और ठगा सा महसूस कर रहा था । मगर उस साधू ने व्यापारी को जाते देख लिया था और बाहर आकर उसने कहा “रूको, तुमने जो धन का थैला मुझे दिया था वह ज्यों की त्यों ही है”। और साधु ने व्यापारी का धन से भरा थैला वापिस कर दिया। अपने धन को सलामत देखकर व्यापारी ख़ुशी से गद-गद हो गया और साधु को दान देने की इच्छा जाहिर की। परन्तु साधु ने मना कर दिया और हाथ जोड़ कर नमस्कार कर तम्बू की और चला गया। व्यापारियों का झुण्ड भी ख़ुशी ख़ुशी अपने सुंदरनगर की ओर चल पड़ा।
डाकू का हृदय परिवर्तन
जब सरदार तम्बू में वापिस लौटा तब वहाँ बैठे अन्य डाकूओं ने सरदार से पूछा कि हाथ में आये धन को इस प्रकार क्यों जाने दिया। तभी सरदार ने कहा, “व्यापारी मुझे भगवान का भक्त जानकर भरोसे के साथ थैला दे गया था, उसी कर्तव्यभाव से मैंने उसके थैले को वापस दे दिया”। किसी के विश्वास को तोड़ने से सच्चाई और ईमानदारी हमेशा के लिए शक के घेरे में आ जाती है। बिलकुल वैसे ही जैसे राज्य की सुविधा यहाँ न पहुँच पाने की वजह से हमारा राज्य से विश्वास उठ गया और हम सच्चाई और ईमानदारी के रास्ते से भटक गए। परन्तु आज व्यापारी की बात सुन कर एहसास हुआ की हम राज्य की सुविधा यहाँ तक नहीं पहुँच पाने का दंड सच्चाई और ईमानदारी से धन प्राप्त कर रहे लोगो को उनका धन लूट कर देते हैं और यह गलत है। आज से हम सब मिलकर मेहनत करेंगे और अपने साथ साथ सभी वंचित लोगों की सहायता भी करेंगे। सब सरदार की बात से सहमत हुए और डकैती छोड़ कर ईमानदारी से धन कमाने की प्रतिज्ञा ली।
लेखिका – डॉक्टर करिश्मा कौशल