दुर्योधन और पांच सोने के तीर (Duryodhan and Five Golden Arrows)

दुर्योधन और पांच सोने के तीर (Duryodhan and Five Golden Arrows)

महाभारत की कहानी दुर्योधन और पांच सोने के तीर (Duryodhan and Five Golden Arrows) एक शिक्षाप्रद कहानी है। महाभारत का युद्ध धर्म और अधर्म का युद्ध था। कृष्ण पांडवों के पक्ष से थे। परंतु, उन्होंने युद्ध में शस्त्र नही उठाने का निर्णय लिया था। वहीं श्रीकृष्ण की नारायणी सेना कौरवों की ओर से लड़ रही थी। युद्ध में कभी कौरवों का तो कभी पांडवों का पलड़ा भारी लगता। महाभारत के युद्ध में कुरुक्षेत्र की रणभूमि पर श्रीकृष्ण ने प्रत्यक्ष रूप से शस्त्र नहीं उठाएं लेकिन अर्जुन का सारथी बनकर श्रीकृष्ण युद्ध भूमि में अर्जुन का मार्गदर्शन करते रहे। द्रौपदी के भाई, दृष्टद्युम्न पांडवों के सेनापति थे। वहीं, कौरवों के तरफ से गंगा पुत्र भीष्म सेनापति थे। उनके नेतृत्व में युद्ध लड़ा जा रहा था। कौरव दल पूर्ण बल से युद्ध करने के बाद भी पांच पांडव में से किसी का भी बाल भी बांका न कर पा रहा था।

दुर्योधन को हुआ भीष्म पितामह पर संदेह

कौरवों के प्रधान सेनापति भीष्म 10 दिनों तक पांडव सेना पर भारी पड़े थे। प्रतिदिन भीष्म हजारो सैनिकों को मार रहे थे। परंतु, दुर्योधन भीष्म पितामह पर कहीं न कहीं संदेह कर रहा था। उसे लग रहा था कि पितामह भीष्म जान बूझकर पांडवों का साथ देते हैं और उन्हें मारना नहीं चाहते। यही सोचकर एक रात दुर्योधन भीष्म से सीधे बात करने के लिए उनके पास शिविर में पंहुचा। जब दुर्योधन भीष्म के शिविर में पंहुचा तो देखा भीष्म चिंतनशील होकर शिविर में बैठे थे। यूं आधी रात को दुर्योधन को अपने शिविर में प्रवेश करते देख भीष्म हैरान हुए। उन्होंने दुर्योधन से शिविर में आने का कारण पूछा।

भीष्म की कर्तव्यनिष्ठा पर उठे प्रश्न

दुर्योधन ने गुस्से में कहा “पितामह! आपके मोह पूर्ण अन्याय के कारण मैं आधी रात को आपके शिविर में आने के लिए विवश हुआ हूं। आप अगर पूरी कर्तव्यनिष्ठा और मोहरहित होकर पांडवों के साथ युद्ध करते, तो शायद मुझे यहां आने की आवश्यकता नहीं पड़ती। युद्ध शुरू हुए 10 दिन बीत चुके हैं लेकिन आप अभी तक पांडवों को पराजित नहीं कर पाए हैं। आप संसार को दिखाने के लिए युद्ध का अभिनय कर रहे हैं। आपको आज भी पांडवों से अति प्रेम करते है और आप मेरे सेनापति होते हुए भी पांडवों को युद्ध जीतते देखना चाहते हैं।” अपने बारे में दुर्योधन के मुख से ऐसी बात सुनकर पितामह भीष्म बहुत दुखी हुए।

पांडवों को मारने के लिए भीष्म सज्ज 

दुर्योधन के मुख से कटु वचन सुनकर भीष्म ने दुर्योधन से पूछा, “तुम क्या चाहते हो पुत्र दुर्योधन ?” दुर्योधन ने कहा, ” पांडवों की मृत्यु और इसके लिए आपको अपनी दिव्य शक्तियों का प्रयोग करना होगा।” पितामह भीष्म ने अपनी शस्त्र विद्या का प्रयोग करते हुए सोने के पांच अचूक तीर निकाले और इसे अभिमंत्रित करके बोले- “दुर्योधन! तुम व्यर्थ में संदेह करते हो। इन बाणों से कोई नहीं बच सकता। कल का दिन युद्ध का अंतिम दिन होगा। एक ही दिन में पांचों पांडवों को इन बाणों से समाप्त कर दूंगा। फिर पांडवों के मरते हुए युद्ध का परिणाम तुम्हारे पक्ष में होगा।” पितामह भीष्म की बात सुनकर दुर्योधन प्रसन्न हुआ लेकिन अगले ही क्षण उसके मन में पितामह भीष्म के प्रति संदेह उत्पन्न हो गया।

दुर्योधन की चालाकी (Duryodhan and Five Golden Arrows)

कपटी दुर्योधन (Duryodhan) भीष्म की बातों को सुनकर प्रसन्न तो हुआ। परंतु, अब दुर्योधन को भीष्म की बातों में भी छल-कपट दिखने लगे। दुर्योधन ने भीष्म से कहा- “पितामह! आपकी योजना बहुत अच्छी है। किन्तु, मुझे फिर भी संदेह हो रहा है कि आप इतनी जल्दी और आसानी से पांडवों को मारेंगे। हो सकता है आप मोहवश या प्रेमवश उन्हें ना मार पाएं। अतः आप इन बाणों को मुझे दे दें। मैं युद्ध भूमि में आपको ये पाँचों बाण दूंगा और आपको आपके कर्तव्य की याद दिलाऊंगा। तब आप पांडवों का वध मेरे सामने कीजियेगा।” दुर्योधन की बात सुनकर पितामह भीष्म ने पांचों अभिमंत्रित बाण दुर्योधन को दे दिए। दुर्योधन अपनी संभावित जीत पर बहुत खुश था। वह बाण लेकर अपने शिविर में चला गया।

पांडवों को जब पता चला

भीष्म के शिविर के पास पहरा दे रहे पांडवों के एक गुप्तचर ने सारी बातें सुन ली। उसने महाराज युधिष्ठिर को आकर सोने के बाण के बारे में सूचना दी। तब भगवान श्री कृष्ण भी वहीं थे। युधिष्ठिर ने भगवान श्री कृष्ण से कहा, “हे गोविंद! पितामह के इन तीरों के प्रतिकार हम कैसे करें?” इस बात को सुनकर श्रीकृष्ण युधिष्ठिर संग तुंरत ही अर्जुन के शिविर में पहुंचे और अर्जुन को पूरी घटना बताई। श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि “पार्थ! तुम्हे दुर्योधन से उन पांचों बाणों को माँगना होगा।” श्रीकृष्ण की बात सुनकर अर्जुन ने अचंभित हो कर पूछा, “दुर्योधन भला वो तीर मुझे क्यों देगा?” तब श्रीकृष्ण ने अर्जुन को स्मरण दिलाया कि, ‘एक बार अर्जुन ने दुर्योधन को यक्ष और गंधर्वो के हमले से बचाया था।’

अर्जुन पहुंचा दुर्योधन के पास

‘तब दुर्योधन ने प्रसन्न होकर अर्जुन से कहा था कि “वो कोई भी कीमती चीज दुर्योधन से मांग सकता है।” उस दिन अर्जुन ने बात को टालते हुए दुर्योधन से कुछ नहीं मांगा था। अब वो समय आ गया है।’ अर्जुन को श्रीकृष्ण की बात सुनकर सब स्मरण आ गया। युधिष्ठिर की आज्ञा से अर्जुन दुर्योधन के शिविर में पहुंचे। दुर्योधन अचानक अर्जुन को अपने शिविर में देखकर शशंकित हुआ। अपनी शंका को छुपाते हुए जोर जोर से हंसते हुए दुर्योधन ने अर्जुन से कहा, “आओ अर्जुन आओ! क्षमा मांगने आये हो क्या? तुम्हारे प्रिय पितामह ने जो तुम्हारी सेना के साथ किया उससे भयभीत हो क्या? इस रात्रि में आने का क्या कारण है? बताओ क्या सहायता मांगने आये हो?”

दुर्योधन का वचन (Duryodhan and Five Golden Arrows)

अर्जुन ने कहा, “भ्राता दुर्योधन! प्राणिपाद! सही समझा अपने मैं आपसे याचना करने ही आया हूँ। परंतु, मेरे मांगने से पहले ही आप उसे देने के लिए विवश है।” दुर्योधन हंसता हुआ बोला, “मैं विवश हूँ अर्जुन? याचक विवश होता है, दाता नही। परंतु, कोई बात नही अबोध अर्जुन! तुम मांगो!” अर्जुन ने दुर्योधन से वह पांच बाण मांगे लेकिन दुर्योधन ने अर्जुन को मना कर दिया। तब अर्जुन ने दुर्योधन को क्षत्रिय धर्म स्मरण कराते हुए उस घटना को बताया। कैसे अपनी प्राण रक्षा के बदले दुर्योधन ने अर्जुन को कोई भी बहुमूल्य वस्तु देने का वचन दिया था? दुर्योधन ने अर्जुन से कहा, “तुम कुछ और मांग लो। मैं यह नही दे सकता।”

दुर्योधन का क्षत्रिय धर्म (Duryodhan)

तब अर्जुन ने कहा, “यदि आप अपने वचन को पूरा नही करना चाहते, तो कोई बात नही भ्राता। अब आपके पास कुछ बहुमूल्य है भी तो नही जो मांगा जाए। सामर्थ्य के अभाव में आपको पितामह के बाणों की आवश्यकता भी है। ठीक है! मैं चलता हूँ।” अर्जुन के कटाक्षों से दुविधा में फंसे दुर्योधन ने कहा, “रुको अर्जुन! किसके पास सामर्थ्य नही है? हम सौ हैं। तुम पांच हो।” फिर, ना चाहते हुए भी दुर्योधन ने पांचों बाण (Duryodhan and Five Golden Arrows) अर्जुन को दे दिए। अर्जुन उन दिव्य बाणों को प्राप्त कर अपने शिविर में आ गए। इस तरह भीष्म से बाण लेने की गलती दुर्योधन पर भारी बहुत पड़ी और पांडवों की मौत टल गई। महाभारत के युद्ध के अंत में पांडवों की जीत हुई।

अभिमन्यु वध (Abhimanyu Vadh): अधर्म की पराकाष्ठा पढ़ें।