राजा भर्तृहरि की कथा (Raja Bharthari ki Katha)

सम्राट विक्रमादित्य की कहानी: क्यों विक्रमादित्य के भाई भर्तृहरि (Raja Bharthari ki Katha) ने छोड़ दिया राज पाट?

राजा भर्तृहरि की कथा (Raja Bharthari ki Katha) भारत मैं सुनाई जाने वाली प्रमुख कथा है। प्राचीन समय की बात है, धारा राज्य में गंधर्वसेन के पुत्र विक्रमादित्य राज करते थे। उनके राज में राज्य बहुत तरक्की कर रहा था। हर ओर खुशहाली थी। उनकी प्रजा प्रसन्न थी। आर्थिक एवं सामाजिक रूप से भी राज्य की वृद्धि हो रही थी। अब राज्य में गरीब दुखिया लोगों की संख्या बहुत ही कम थी। इतनी कम कि उन्हें उंगलियों पर गिना जा सकता था। सम्राट विक्रमादित्य के राज्य में प्रजा की हर परेशानी का हल किया जाता था। उनका राज प्रजा के हित के लिए ही प्रतीत होता था। वही उनका राज्य क्षमता एवं शक्ति के रूप से भी सुदृढ़ता था।

भर्तृहरि बने कार्यकारी राजा

राजा विक्रमादित्य चक्रवर्ती सम्राट बन चुके थे। उनका राज्य पुरे जम्बूद्वीप पर फैला हुआ था। एक दिन की बात है। राजा विक्रमादित्य के मन में आया कि, ‘उन्हें अपने पूरे राज्य का भ्रमण कर, लोगों की उचित स्थिति मालूम करनी चाहिए’। उन्होंने सोचा, ‘इसके लिए मैं भेष बदलकर भ्रमण करूंगा’। इस निर्णय को लेने के बाद, उन्होंने अपने वापस आने तक के लिए, अपने भाई भर्तृहरि को राज्य का कार्यभार सौंप दिया। फिर स्वयं योगी बनकर राज्य भ्रमण के लिए निकल पड़े। भर्तृहरि राज्य ठीक से चला रहे थे। राजा विक्रमादित्य के नियमों से परिचित भर्तृहरि राजा विक्रमादित्य के अनुसार ही राज्य को चला रहे थे।

अमर फल की प्राप्ति

कुछ समय बीत जाने के उपरांत एक विचित्र घटना घटी। उसी राज्य में एक ब्राह्मण तपस्या करता था। उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर देवताओं ने उसे अमर फल दिया। जिस फल को खाने से वह अमर हो जाता। ब्राह्मण ने अपने इस फल के बारे में अपनी पत्नी को बतलाया। इस पर पत्नी ने कहा कि, “हमसे ज्यादा इस फल की आवश्यकता इस राज्य के राजा को है। आप यह राजा को दे आइए”। ब्राह्मण वह फल लेकर राजा भर्तृहरि के पास पहुंचा और उन्होंने उन्हें सारी बात बताई। फिर कहा, “इस अमर फल पर इस राज्य के राजा का ही अधिकार है इसलिए यह आप ग्रहण कीजिए। राजा भर्तृहरि ने ब्राह्मण के भाव से प्रसन्न होकर ब्राह्मण को 100000 स्वर्ण मुद्राएं देने की घोषणा की।

भर्तृहरि को मिला अमर फल

ब्राह्मण के जाने के बाद राजा ने सोचा, ‘मैं तो यहां का कार्यपालक राजा हूं। इस फल पर तो मेरे बड़े भाई सम्राट विक्रमादित्य का अधिकार है। परंतु, यह फल उनके आने तक सड़ जाएगा। देवताओं के प्रसाद को ऐसे व्यर्थ कर देना कोई बुद्धिमानी नहीं है। बड़े भाई के बाद मुझे मेरी पत्नी ही सबसे ज्यादा प्रिय है। क्यों ना मैं इसे अपनी प्रिय पत्नी को ही दे दूं। अपनी पत्नी को मैं समय नहीं दे पाता। उन्हें यह अमर फल देकर, मैं अपने जीवन में उनका महत्व ही बता देता दूं।’ मन ही मन ऐसा सोचकर, राजा भर्तृहरि ने अमर फल अपनी प्रिय पत्नी को दे दिया।

अमर फल पहुंच भर्तृहरि के पास (Raja Bharthari ki Katha)

भर्तृहरि से समय न मिलने के कारण, भर्तृहरि की पत्नी की मित्रता राज कोतवाल से हो गई थी। रानी ने यह अमर फल प्रेमवश उस राज्य कोतवाल को दे दिया। परंतु, राज कोतवाल एक वैश्या पर भी मोहित था। उसने वह अमर फल उस वैश्या को दे दिया। वैश्या ने सोचा, ‘इस जीवन को अमर करके इस फल को व्यर्थ करने से अच्छा है की, मैं यह फल राजा को दे दूँ’। यह सोचकर वह वैश्या उस अमर फल को लेकर राजा के पास चली गई। राजा के पास जाकर, उसने कहा कि, “यह एक अमर फल है। इसे खाने से मनुष्य अमर हो जाएगा। परंतु, मैं अपने इस जीवन को अमर कर इस फल को व्यर्थ नहीं करना चाहती हूँ। इसलिए, यह आपकी सेवा में लेकर उपस्थित हुई हूँ। राजा का अमर होना, प्रजा के अमर होने से ज्यादा आवश्यक है।”

छल के उत्तर में छल

राजा फल देखते ही समझ गए कि यह वही फल है। वैश्या को भी उन्होंने एक लाख स्वर्ण मुद्राएं दे दी। जब राज्य कर्मों से समय मिला तब भर्तृहरि अपनी रानी के पास पहुंचे, और उनसे जाकर पूछ कि, “जो फल मैंने आपको दिया था वह आपने क्या किया?” रानी ने कहा, “मैंने वह फल खा लिया”। तब राजा ने वह फल निकाल के रानी के को दिखाकर पूछा, “यदि आपने खा लिया, तो यह फल मेरे पास कहां से पहुंचा?” यह सब देख रानी बिलख बिलख कर रोने लगी और राजा को बताया की आपसे समय न मिल पाने के कारण मेरी मित्रता राज कोतवाल से हो गई थी। मैंने प्रेमवर्ष यह फल उसे दे दिया था। परंतु मेरे प्रेम को त्याग उसने किसी ओर को दे दिया। मुझे छल के उत्तर में छल ही मिला है।

यह कैसी दुनिया है?

तब राजा भर्तृहरि ने राज कोतवाल को एकांत में बुलवाया। जब उससे प्रश्न पूछे तो राज कोतवाल राजा के चरणों में गिर पड़ा। कभी रोता कभी क्षमा मांगता। राजा ने पूछा, “तुमने यह फल किसे दिया”? तब कोतवाल ने बताया कि वह एक वैश्या के पास जाता था। उसे ही यह फल दे दिया। राजद्रोह की सजा राज कोतवाल को हुई। भर्तृहरि बस यह सोच रहे थे कि, ‘यह कैसी दुनिया है? जहां कोई किसी का नहीं है। जहां देवता किसी की तपस्या से प्रसन्न होकर उसे अमर फल प्रदान करते हैं तो वह उस अमर फल को लेकर राज्यहित में राजा को दे देता है। राजा राज्य हित भूलकर प्रेमवश अपनी पत्नी को दे देता है। पत्नी अपना धर्म, कर्म, संस्कार भूलकर अपने प्रेमी को दे देती है। वह प्रेमी एक वैश्या को जाकर दे देता है।

भर्तृहरि ने त्यागा राज्य (Raja Bharthari ki Katha)

भर्तृहरि सोचते हैं, जो वैश्या, समाज में सबसे निम्न श्रेणी में समझी जाती का है। वह भी इस अमृत फल को लेने से मना कर देती है, कारण जो भी हो। फिर वह अमृत फल घूम कर उसी राजा को दे आती है। हो न हो मोह रूपी कलयुग की पट्टी मेरे आंखों से उतारने हेतु नियति ने यक खेल रचा है। राजा ने एक दासी को एक पात्र में जल लाने को कहा। जब दासी जल लेकर आई, तब राजा ने स्वयं अपने हाथों से उस फल को धोया और खा लिया। वैराग्य से भरे हुए भर्तृहरि ने योगी वस्त्र धारण किया और राज्य त्याग जंगल को चल पड़े। ये है राजा भर्तृहरि की कथा (Raja Bharthari ki Katha)।

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