रक्षा बंधन की कहानी

भारतीय इतिहास में रक्षा बंधन मनाने की परम्परा काफी पुरानी है। इसमें बहुत सी कहानियां प्रसिद्ध हैं, आइये रक्षा बंधन की कहानी पढ़ते हैं।

रक्षा बंधन की कहानी (Raksha Bandhan Story)

Raksha Bandhan ki kahani

भाई बहन के अटूट प्रेम का पर्व रक्षाबंधन प्रति वर्ष श्रावण पूर्णिमा को मनाया जाता है। ये सदियों से भाई और बहन के प्रेम का परिचायक है। पौराणिक कथाओं के अनुसार इस त्योहार की परम्परा उन बहनों ने रखी जो सगी बहनें नहीं थीं। देवासुर संग्राम के बाद सब कुछ खोने के बाद राजा बलि ने विश्वजीत यज्ञ किया और अनेक तरह के अमोघ अस्त्र प्राप्त किये। पुनः स्वर्ग पर चढ़ाई करके देवराज इंद्र को स्वर्ग से भगा दिया तो देवराज इंद्र ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की। भगवान विष्णु ने माता अदिति के गर्भ से वामन के रूप में अवतार लिया। भगवान वामन ने राजा बलि से कहा मुझे केवल उतनी भूमि चाहिए जितनी भूमि मेरे तीन पग (कदम) में नप जाये।

बलि का दान और माँ लक्ष्मी का बलि को भाई बनाना

महाराजा बलि ने वामन के आग्रह के बाद तीन पग भूमि दान करने का संकल्प किया। प्रभु ने एक पग में धरती और दूसरे पग में आकाश को नाप दिया और फिर तीसरे पग के लिए अपने पैर उठाये और बलि की ओर देखा। तभी बलि ने हाथ जोड़ कर अपने घुटनों पर बैठ कर कहा “हे प्रभु! तीसरे पग में आप मुझे नाप लें और मुझपर भी स्वामित्व स्थापित कर ले, यह रहा मेरा मस्तक आपकी सेवा में, आप मेरे मस्तक पर पग धरें। भगवान विष्णु ने बलि की भक्ति से प्रश्न हो कर हमेशा बलि के सामने रहने का वचन दे दिया। तब माता लक्ष्मी ने राजा बलि को रक्षा सूत्र बाँध कर भाई बनाया और फिर भगवान विष्णु को लेकर बैकुंठ गयीं। वो दिन श्रावण पूर्णिमा का दिन था।

द्रौपदी का श्रीकृष्ण को राखी बांधना

Story of Raksha Bandhan

श्रावण मास की पूर्णिमा का दिन था जब भगवान श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र से शिशुपाल का वध किया तब उनकी तर्जनी अंगुली में चोट आ गई। द्रौपदी ने अपनी साड़ी को फाड़कर उनकी अंगुली पर पट्टी बांध दी। भगवान श्रीकृष्ण ने इस उपकार का बदला चीरहरण के समय द्रौपदी की लाज बचाकर चुकाया।

रानी कर्णावती का हुमायूुँ को राखी भेजना

गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह ने चितौड़ के नाराज सामंतो के कहने पर चित्तौड़ के शासक महाराणा विक्रमादित्य को कमजोर समझकर राज्‍य पर आक्रमण कर दिया था। इस मुसीबत से निपटने के लिए कर्णावती ने सेठ पद्मशाह के हाथों हुमायूं को राखी भेजी थी और सहायता मांगी थी। हुमायूं ने राखी का मान रखाऔर इसे सहर्ष स्वीकार किया। उन दिनों हुमायूं का पड़ाव ग्वालियर में था, उनके पास राखी देर से पहुंची। जब तक वे फौज लेकर चित्तौड़ पहुंचे थे, वहां बहादुरशाह की जीत और रानी कर्णावती का जौहर हो चुका था।

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